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प्र वां॑ निचे॒रुः क॑कु॒हो वशाँ॒ अनु॑ पि॒शङ्ग॑रूप॒: सद॑नानि गम्याः। हरी॑ अ॒न्यस्य॑ पी॒पय॑न्त॒ वाजै॑र्म॒थ्रा रजां॑स्यश्विना॒ वि घोषै॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vāṁ niceruḥ kakuho vaśām̐ anu piśaṅgarūpaḥ sadanāni gamyāḥ | harī anyasya pīpayanta vājair mathrā rajāṁsy aśvinā vi ghoṣaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वा॒म्। नि॒ऽचे॒रुः। क॒कु॒हः। वशा॑न्। अनु॑। पि॒शङ्ग॑ऽरूपः। सद॑नानि। ग॒म्याः॒। हरी॑। अ॒न्यस्य॑। पी॒पय॑न्त। वाजैः॑। म॒थ्ना। रजां॑सि। अ॒श्वि॒ना॒। वि। घोषैः॑ ॥ १.१८१.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:181» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) पवन और सूर्य के समान अध्यापक और उपदेशको ! जिन (वाम्) तुम्हारा जैसे (पिशङ्गरूपः) पीला सुवर्ण आदि से मिला हुआ रूप है जिसका वह (ककुहः) सब दिशाओं को (निचेरुः) विचरनेवाला (वशान्) वशवर्त्ति जनों को (अनु) अनुकूल वर्त्तता है उन में से प्रत्येक तुम (सदनानि) लोकों को (प्र, गम्याः) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ जैसे (अन्यस्य) और अर्थात् अपने से भिन्न पदार्थ की (हरी) धारण और आकर्षण के समान बल, पराक्रम (वाजैः) वेगादि गुणों और (घोषैः) शब्दों से (मथ्ना) अच्छे प्रकार मथे हुए (रजांसि) लोकों को बढ़ाते हैं, वैसे मनुष्य उनको (वि, पीपयन्त) विशेष कर परिपूर्ण करते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पवन सबको अपने वश में करता है तथा वायु और सूर्य लोक सबको धारण करते हैं, वैसे विद्या धर्म्म को धारण कर तुम भी सुखी होओ ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना ययोर्वां पिशङ्गरूपो ककुहो निचेरूरथो वशाननुवर्त्तते तयोः प्रत्येकस्त्वं सदनानि प्रगम्याः। यथाऽन्यस्य हरी वाजैर्घोषैश्च प्रमथ्ना रजांसि वर्द्धयतस्तथा जनास्तौ विपीपयन्त ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वाम्) युवयोः (निचेरुः) चरन् (ककुहः) सर्वा दिशः (वशान्) वशवर्त्तिनः (अनु) आनुकूल्ये (पिशङ्गरूपः) पिशङ्गं पीतं सुवर्णादिमिश्रितं रूपं यस्य सः (सदनानि) भुवनानि (गम्याः) गच्छेः (हरी) धारणाकर्षणाविव बलपराक्रमौ (अन्यस्य) (पीपयन्त) आप्याययन्ति (वाजैः) वेगादिभिर्गुणैः (मन्था) मन्थानि मथितानि (रजांसि) लोकान् (अश्विना) वायुसूर्यवदध्यापकोपदेशकौ (वि) (घोषैः) शब्दैः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा वायुः सर्वान् वशयति वायुसूर्यो लोकान् धरतः। तथा विद्याद्धर्मौ धृत्वा यूयं सुखिनो भवत ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा वायू सर्वांना आपल्या नियंत्रणाखाली ठेवतो व वायू आणि सूर्यलोक सर्वांना धारण करतात तसे विद्या धर्माला धारण करून तुम्ही सुखी व्हा. ॥ ५ ॥